हिंदी साहित्य का इतिहास और साहित्यिक विधाएं
'विधा'का अर्थ है - विभाग या प्रकार| 1000 ई० से 1900ई० तक पद्यो में ही रचनाएं मिलती हैं;गद्यो में बहुत ही कम रचनाएं प्राप्त होती हैं| ऐसे भी गद्य काल 1900 ईसवी से अब तक माना गया है, जिसमें कहानी नाटक, एकांकी, जीवनी, आत्मकथा,यात्रा वृतांत संस्मरण,रेखाचित्र ,डायरी आदि का विकास हुआ|
मुख्य रूप से काव्य दो प्रकार के होते हैं- गद्य और पद्य| एक तीसरे प्रकार के काव्य का भी विकास हुआ, जिसे 'चंपू काव्य' के नाम से जाना जाता है| इसमे गद्य- पद्य मिश्रित रचनाएं रहती हैं| मैथिलीशरण गुप्त की रचना 'यशोधरा' इसी काव्य के अंतर्गत आती है|
अब हम प्रत्येक विधा का विस्तार पूर्वक अवलोकन करेंगे|
१. पद्य विधा
इस विधा के अंतर्गत' कविता'आती है | काव्यशास्त्र की परंपरा में श्रव्य काव्य के दो प्रकार बताए गए हैं- प्रबंध काव्य और मुक्तक काव्य| मुक्तक को ही आजकल 'कविता'के नाम से जानते हैं|
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कविता के बारे में कहा है-" कविता वह साधन है, जिसके द्वारा सेष सृष्टि के साथ मनुष्य के रागात्मक संबंध की रक्षा और निर्वाह होता है|" अर्थात कविता मानव चेतना का अंग है|
हिंदी कविता के विकास चरणों का विभाजन इस प्रकार किया गया है|
1. आदिकाल/ वीरगाथा काल /चारण काल /सिद्ध सामंत काल
इस काल का समय संवत 1000 से संवत 1375 या 943 ईस्वी से 1318 ईस्वी माना गया है| भारतीय इतिहास का यह युग राजनीतिक दृष्टि से गृह कलह, पराजय एवं अव्यवस्था का काल था| ऐसी सांप्रदायिक, धार्मिक, राजनीतिक एवं आर्थिक विषमता के युग में साहित्य निर्माण का दायित्व विशेषकर चारणों भाटो एवं पेशेवर कवियों पर आ पड़ा| राजाओं में वीरता का भाव जागृत करने के लिए एक ओर वीर काव्यों की रचनाएं हुई तो दूसरी ओर शांति के समय में श्रृंगार परक रचनाएं|
इस काल की प्रवृत्तियों एवं धाराओं के अवलोकन के लिए इसका विभाजन इस प्रकार किया जा सकता है-
• अपभ्रंश काव्य :
इसे भी सुविधा की दृष्टि से दो भागों में बांटा जा सकता है- सिद्ध साहित्य और जैन साहित्य- सिद्ध साहित्य की परंपरा 8वीं शताब्दी से 12 वीं शताब्दी तक कायम रही| सिद्ध सरहपा ,मीनपा, कृष्णपा, कंबलीपा और भूसुकपा आदि की वाणियाँ इस साहित्य का प्रतिनिधित्व करती हैं | जैन साहित्य 7 वीं सदी से ही मिलने लगता है| इसके अनेक मुख्य कवि हुए- देवसेन,धवल, स्वयंभू, पुष्पदंत धनपाल आदि|
• देशभाषा काव्य ः
इस युग के देश भाषा काव्य में निम्नलिखित प्रकार की रचनाएं मिलती हैं|
• प्रबंध काव्य( रासो काव्य आदि)
• स्फुट काव्य( वीर श्रृंगार एवं भक्ति संबंधी रचनाएं)
प्रबंध काव्य के अंतर्गत खुमान रासो, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो और हम्मीर रासो आदि प्रमुख हैं|
इनमें से अधिकांश श्रृंगार और वीर रस प्रधान है| उक्त रचनाओ में सर्वाधिक उल्लेख' पृथ्वीराज रासो' का ही है| जो पृथ्वीराज के मित्र और राज दरबारी कवि चंद्रवरदाई द्वारा लिखित है|
स्फुट रचनाओं में आल्हा खंड ,डिंगल की रचनाएं विद्यापति पदावली, खुसरो की रचनाएं और गोरख वाणी आदि का उल्लेख है|
आदिकाल की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं-
• इस काल की रचनाएं प्रशंसा मूलक है|
• इसमें ऐतिहासिकता का अभाव है|
• इस काल की रचनाओं में चाटुकारिता का स्वर व्यंजित होता है|
• इसमें युद्धों का बड़ा ही सजीव वर्णन है|
• वीर रस के साथ श्रृंगार रस का अद्भुत वर्णन है|
आदि काल के कवियों में विद्यापति का सर्वोच्च स्थान माना गया है| यह विभिन्न प्रकार की परस्पर विरोधी विचारधाराओं और शैलियों के मिलन बिंदु पर आसनस्थ दिखाई पड़ते हैं| विद्यापति वस्तुतः संक्रमण काल के प्रतिनिधि कवि हैं| वे दरबारी होते हुए भी जनकवि है; शृंगारिक होते हुए भी भक्त है| काल की दृष्टि से विद्यापति का जन्म वीरगाथा काल में हुआ और रचना पद्धति की दृष्टि से वह भक्ति काल और रीतिकाल के बीच की कड़ी है| उन्होंने जहां एक और 'कीर्तीलता' लिखकर वीरगाथा की परंपरा बनाए रखी, वहीं दूसरी ओर गंगा,दुर्गा,शिव आदि की बंदना में भक्ति साहित्य प्रस्तुत किया और सद्य स्नाता,वयः संधि आदि के वर्णन मे रीतिकालीन नायिका भेद वाली प्रणाली का सूत्रपात भी किया|
'पृथ्वीराज रासो' हिंदी का प्रथम श्रेष्ठ महाकाव्य है जिसमें संस्कृत से लेकर अपभ्रंश तक स्वीकृत और प्रचलित महाकाव्य संबंधी लक्षणों और काव्य रूढ़ियों का समावेश हुआ है| पृथ्वीराज रासो में अत्यंत प्राैढ और परिष्कृत साहित्यिक परंपरा का निर्वाह हुआ है जिसका प्रभाव परवर्ती साहित्य पर भी देखने को मिलता है|
• इसमें युद्धों का बड़ा ही सजीव वर्णन है|
• वीर रस के साथ श्रृंगार रस का अद्भुत वर्णन है|
आदि काल के कवियों में विद्यापति का सर्वोच्च स्थान माना गया है| यह विभिन्न प्रकार की परस्पर विरोधी विचारधाराओं और शैलियों के मिलन बिंदु पर आसनस्थ दिखाई पड़ते हैं| विद्यापति वस्तुतः संक्रमण काल के प्रतिनिधि कवि हैं| वे दरबारी होते हुए भी जनकवि है; शृंगारिक होते हुए भी भक्त है| काल की दृष्टि से विद्यापति का जन्म वीरगाथा काल में हुआ और रचना पद्धति की दृष्टि से वह भक्ति काल और रीतिकाल के बीच की कड़ी है| उन्होंने जहां एक और 'कीर्तीलता' लिखकर वीरगाथा की परंपरा बनाए रखी, वहीं दूसरी ओर गंगा,दुर्गा,शिव आदि की बंदना में भक्ति साहित्य प्रस्तुत किया और सद्य स्नाता,वयः संधि आदि के वर्णन मे रीतिकालीन नायिका भेद वाली प्रणाली का सूत्रपात भी किया|
'पृथ्वीराज रासो' हिंदी का प्रथम श्रेष्ठ महाकाव्य है जिसमें संस्कृत से लेकर अपभ्रंश तक स्वीकृत और प्रचलित महाकाव्य संबंधी लक्षणों और काव्य रूढ़ियों का समावेश हुआ है| पृथ्वीराज रासो में अत्यंत प्राैढ और परिष्कृत साहित्यिक परंपरा का निर्वाह हुआ है जिसका प्रभाव परवर्ती साहित्य पर भी देखने को मिलता है|
•भक्तिकाल/ पूर्व मध्यकाल
इस काल का समय विक्रम संवत 1375 से संवत 1700 या 1318ई०-1603ई० तक माना गया है| भक्तिकाल का वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है|
निर्गुण धारा
इसे दो भागों में विभाजित किया जा सकता है|
• ज्ञानआश्रयी शाखा • प्रेमआश्रयी शाखा
सगुण धारा
इसे दो भागों में विभाजित किया जा सकता है|
• राम भक्ति शाखा • कृष्ण भक्ति शाखा
निर्गुण धारा
ज्ञानआश्रयी शाखा
ज्ञानआश्रयी शाखा के प्रवर्तक कबीरदास माने जाते हैं| यह धारा एक ओर धर्म के सहज ,सरल और आडंबरहीन रूप को प्रस्तुत करती है तो दूसरी ओर हिंदू मुस्लिम एकता का प्रचार करती है| धर्म में फैले आडंबरो,पाखंडों, मिथ्या प्रदर्शनों, तीर्थ,व्रत, माला,तिलक, समुद्र स्नान, जात पात,मूर्ति पूजा आदि का इसने घोर विरोध किया है|
इस शाखा की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं|
• निर्गुण एकेश्वर वाद की स्थापना |
• पाखंडो, रुढ़ियो और मृत परंपराअाे का विरोध|
• वर्णाश्रम व्यवस्था का खंडन|
• एकता पर बल |
• साधना का सरल मार्ग- ज्ञान प्राप्ति|
• जन भाषा मे लोक कल्याण का संदेश साधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग|
• पंथप्रचलन- कबीर पंथ, दादू पंथ, नानक पंथ आदि|
• काव्य के कला पक्ष का अभाव और भाव पक्ष की प्रधानता|
• प्रबंध काव्य की अपेक्षा मुक्तक पदों की रचना|
इस शाखा के प्रमुख संत कवियों की रचनाएं इस प्रकार हैं--- कबीर दास (बीजक), गुरु नानक (जपुजी), सुंदर दास( ज्ञान समुद्र, सुंदर विलास) | अन्य कवियों में पीपा रैदास ,सदना,दादू ,धन्ना आदि महत्वपूर्ण है|
इस शाखा की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं|
• निर्गुण एकेश्वर वाद की स्थापना |
• पाखंडो, रुढ़ियो और मृत परंपराअाे का विरोध|
• वर्णाश्रम व्यवस्था का खंडन|
• एकता पर बल |
• साधना का सरल मार्ग- ज्ञान प्राप्ति|
• जन भाषा मे लोक कल्याण का संदेश साधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग|
• पंथप्रचलन- कबीर पंथ, दादू पंथ, नानक पंथ आदि|
• काव्य के कला पक्ष का अभाव और भाव पक्ष की प्रधानता|
• प्रबंध काव्य की अपेक्षा मुक्तक पदों की रचना|
इस शाखा के प्रमुख संत कवियों की रचनाएं इस प्रकार हैं--- कबीर दास (बीजक), गुरु नानक (जपुजी), सुंदर दास( ज्ञान समुद्र, सुंदर विलास) | अन्य कवियों में पीपा रैदास ,सदना,दादू ,धन्ना आदि महत्वपूर्ण है|
प्रेमाश्रयी शाखा :
प्रेमाश्रयी शाखा के अधिकांश कवियों का संबंध सूफी संप्रदाय से था| इस संप्रदाय का आरंभ 10वीं सदी में फारस में हुआ था| इसके आचार विचार हिंदू धर्म से बहुत कुछ मिलते-जुलते थे| इन्होंने हिंदू और मुसलमानों के बीच मेलजोल बढ़ाने का प्रयत्न किया| इस धारा के कवियों की रचनाओं में प्रेम का अत्यंत मार्मिक रूप मिलता है|
इस धारा की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
• इस धारा के सभी कवि मुसलमान थे|
• इस धारा के कवि ब्रह्म और जीव में पति पत्नी का संबंध मानते थे|
• इस धारा के सूफी कवि निर्गुण ईश्वर के प्रचार के लिए हिंदू कथाओ को चुनते थे|
• इस धारा के कवि फारसी और मनसवी शैली का प्रयोग करते थे|
• सभी कवियों ने अवधी भाषा का प्रयोग किया|
• इस धारा के कवि प्रबंध काव्य की रचना करते थे|
• इनकी रचनाओं में प्रेम के संयोग एवं वियोग दोनों पक्ष उजागर हुए|
• इस धारा के कवियों ने मुसलमान होते हुए भी भारतीय वेदांत के प्रभावों को स्वीकारा था|
• प्रायः सभी कवियों ने एकता का संदेश दिया था|
इस धारा के कवियों और रचनाओं में जायसी कृत 'पद्मावत', कुतुबन कृत' मृगावती', मंझन कृत 'मधुमालती', उस्मान कृत ' चित्रावली', नूर मोहम्मद कृत ' इंद्रावती' विशेष प्रसिद्ध है|
ज्ञानआश्रयी शाखा के प्रतिनिधि संत कवि कबीर दास और प्रेमाश्रयी शाखा के प्रतिनिधि सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं| इन दोनों शाखाओं के संतो ने ब्रह्म को निराकार माना है|
इस धारा की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
• इस धारा के सभी कवि मुसलमान थे|
• इस धारा के कवि ब्रह्म और जीव में पति पत्नी का संबंध मानते थे|
• इस धारा के सूफी कवि निर्गुण ईश्वर के प्रचार के लिए हिंदू कथाओ को चुनते थे|
• इस धारा के कवि फारसी और मनसवी शैली का प्रयोग करते थे|
• सभी कवियों ने अवधी भाषा का प्रयोग किया|
• इस धारा के कवि प्रबंध काव्य की रचना करते थे|
• इनकी रचनाओं में प्रेम के संयोग एवं वियोग दोनों पक्ष उजागर हुए|
• इस धारा के कवियों ने मुसलमान होते हुए भी भारतीय वेदांत के प्रभावों को स्वीकारा था|
• प्रायः सभी कवियों ने एकता का संदेश दिया था|
इस धारा के कवियों और रचनाओं में जायसी कृत 'पद्मावत', कुतुबन कृत' मृगावती', मंझन कृत 'मधुमालती', उस्मान कृत ' चित्रावली', नूर मोहम्मद कृत ' इंद्रावती' विशेष प्रसिद्ध है|
ज्ञानआश्रयी शाखा के प्रतिनिधि संत कवि कबीर दास और प्रेमाश्रयी शाखा के प्रतिनिधि सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं| इन दोनों शाखाओं के संतो ने ब्रह्म को निराकार माना है|
सगुण धारा
राम भक्ति शाखा:
राम भक्ति शाखा के सर्वाधिक प्रसिद्ध संत कवि तुलसीदास हैं| उन्होंने समाज और जनजीवन में फैल रहे अनाचार को रोकने के लिए राम के ऐसे आदर्श रूप को प्रस्तुत किया,जो व्यक्ति,परिवार,समाज और राजनीति मे आदर्श मर्यादाओं की स्थापना करता है;जो जीवन के विरोधों मे समन्वय का संदेश देता है| भारतीय समाज ऐसे राम को पाकर मध्ययुग की इस बर्बरता में भी जीवित रह सका|
इस शाखा की विशेषताएं इस प्रकार हैं|
• इस शाखा के सभी कवि सगुण राम को ब्रह्म के पूर्ण अवतार के रूप में स्वीकार करते हैं|
• सभी कवि समन्वय और सामंजस्य का संदेश देते हैं| निर्गुण और सगुण, भक्ति और ज्ञान,राम और शिव इन सबो मे समन्वय किया गया है|
• सभी कवि राम के आदर्श और मर्यादा वान रूप की प्रतिष्ठा करते हैं और उनके लोक रक्षक रूप को प्रस्तुत करते हैं|
• सभी कवि दास्य भाव से राम की उपासना करते हैं|
• सभी कवि अवधी भाषा का प्रयोग करते हैं, प्रबंध काव्यों की रचना करते हैं और दोहा,चौपाई छंदों का प्रयोग करते हैं|
• सभी कवि वात्सल्य वीर शांत रसों का ही विशेषतया प्रयोग करते हैं|
• सभी राम के व्यापक जीवन पर ही रचनाएं करते हैं|
इस धारा के प्रमुख कवियों और रचनाओ में तुलसीदास कृत -रामचरितमानस ,विनय पत्रिका, कवितावली ,नाभा दास कृत- भक्तमाल ,प्राणचंद चौहान कृत -महारामायण और हृदय राम कृत हनुमंत नाटक विशेष उल्लेखनीय है|
कृष्ण भक्ति शाखा
मध्यकालीन भक्ति आंदोलन में कृष्ण भक्ति काव्य का महत्वपूर्ण स्थान है| राम काव्य का उद्भव अवश्य महत्व रखता है ;किंतु तुलसी के मर्यादा वादी ,आदर्शवादी और नैतिक मार्ग का अनुकरण करना इतना आसान कार्य नहीं था| कृष्ण काव्य मे निरूपित भक्ति मार्ग जन सामान्य की मनोवृति के अनुकूल था फलस्वरूप मध्यकाल में कृष्ण काव्य का व्यापक स्तर पर प्रसार हुआ|
कृष्ण काव्य में दो प्रकार की परंपराएं स्पष्ट परिलक्षित होती हैं-
• श्री वल्लभाचार्य की उपासना पद्धति
• जयदेव और विद्यापति आदि की गीत काव्य पद्धति|
इन दोनों में भाव पक्ष की दृष्टि से वल्लभाचार्य का प्रभाव अत्यंत व्यापक है और कला पक्ष में गीत गोविंद का प्रभाव अत्याधिक है| वल्लभाचार्य के शुद्धा द्वैतवादी मत का प्रचार देश में दूर-दूर तक हुआ था| उनके पुत्र विट्ठल नाथ ने हिंदी के आठ प्रमुख कवियों को चुनकर 'अष्टछाप'की स्थापना की थी वे आठ कवि थे -सूरदास कुंभन दास ,परमानंद दास, कृष्ण दास ,छीत स्वामी गोविंद स्वामी ,चतुर्भुज दास और नंददास |सूरदास अष्टछाप के प्रमुख कवि हैं|
इस काव्य धारा की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं|
• कृष्ण भक्ति काव्य का प्रधान विषय कृष्ण की भक्ति है| कृष्ण को ब्रह्म का पूर्ण अवतार माना गया है |उसके साथ मित्र सखा संबंध स्थापित कर उनकी सख्य अाैर मधुरा भक्ति करते हैं|
• इस काव्यधारा में श्रृंगार वात्सल्य एवं शांत रस की प्रधानता है|
• इसमें पात्रों की संख्या अपेक्षाकृत सीमित है|
• यह काव्य मुख्यतः मुक्तक काव्य है
• इसमें ब्रजभाषा की प्रधानता रही है|
• इस धारा के कवियों में सूरदास कृत -सूरसागर, नंद दास कृत -रासपञ्चाध्यायी, श्याम सगाई, परमानंद दास कृत -परमानंद सागर आदि रचनाएं प्रसिद्ध है|
• श्रृंगारिकता का प्रधान्य|
• अलंकरण का प्रधान्य|
• भक्ति और नीतिपरक कुछेक रचनाएं|
• लक्षण ग्रंथों का निर्माण|
• वीर काव्य का निर्माण|
• मुक्तक शैली की प्रधानता|
• ब्रजभाषा की प्रधानता|
• नारी के प्रेमिका स्वरूप का विशद वर्णन|
• कवियों में बहुज्ञता एवं पांडित्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति|
• कवियों का दरबारी होना|
• राधा कृष्ण भक्त के इष्ट न रहकर सामान्य नायक नायिका के प्रतीक बन जाते हैं|
रीतिकालीन साहित्यिक प्रवृत्तियों को मुख्यतः तीन भागों में बांटा गया है-
इन दोनों में भाव पक्ष की दृष्टि से वल्लभाचार्य का प्रभाव अत्यंत व्यापक है और कला पक्ष में गीत गोविंद का प्रभाव अत्याधिक है| वल्लभाचार्य के शुद्धा द्वैतवादी मत का प्रचार देश में दूर-दूर तक हुआ था| उनके पुत्र विट्ठल नाथ ने हिंदी के आठ प्रमुख कवियों को चुनकर 'अष्टछाप'की स्थापना की थी वे आठ कवि थे -सूरदास कुंभन दास ,परमानंद दास, कृष्ण दास ,छीत स्वामी गोविंद स्वामी ,चतुर्भुज दास और नंददास |सूरदास अष्टछाप के प्रमुख कवि हैं|
इस काव्य धारा की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं|
• कृष्ण भक्ति काव्य का प्रधान विषय कृष्ण की भक्ति है| कृष्ण को ब्रह्म का पूर्ण अवतार माना गया है |उसके साथ मित्र सखा संबंध स्थापित कर उनकी सख्य अाैर मधुरा भक्ति करते हैं|
• इस काव्यधारा में श्रृंगार वात्सल्य एवं शांत रस की प्रधानता है|
• इसमें पात्रों की संख्या अपेक्षाकृत सीमित है|
• यह काव्य मुख्यतः मुक्तक काव्य है
• इसमें ब्रजभाषा की प्रधानता रही है|
• इस धारा के कवियों में सूरदास कृत -सूरसागर, नंद दास कृत -रासपञ्चाध्यायी, श्याम सगाई, परमानंद दास कृत -परमानंद सागर आदि रचनाएं प्रसिद्ध है|
रीतिकाल /उत्तर मध्यकाल/ श्रृंगार काल:
इस काल का समय वि.स. 1700 से वि.स. 1900 या 1643 ईस्वी से 1843 ईस्वी माना गया है| भक्ति काल के विशाल सांस्कृतिक जागरण के पश्चात हिंदी साहित्य में जिस युग का आगमन हुआ उसे आचार्य शुक्ल ने रीतिकाल की संज्ञा दी है|' रीति' का अर्थ 'तरीका' या 'प्रणाली' या 'परिपाटी'माना जा सकता है| इसके विकास में तत्कालीन राजनीतिक तथा सामाजिक परिस्थितियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है| राजनीतिक दृष्टि से यह काल मुगल साम्राज्य के विनाश का काल था| मुगलों के पतन से सामंती शक्ति बढ़ी थी| सामंतो में पर्याप्त विलासिता थी तथा उनकी मनोवृति संकुचित थी| इसका प्रभाव समाज पर भी पड़ा| कवियों ने आश्रय दाताओं की शरण ली और उनका एकमात्र लक्ष्य आश्रय दाताओं की विलास इच्छा कि पूर्ति करना था | समाज नैतिकता से दूर हटता गया| कला वासना पूर्ति का साधन बनी और नारी उसका आलंबन| इस काल को मिश्र बंधुओ ने ' अलंकृत काल', आचार्य शुक्ल ने 'रीतिकाल',पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने 'श्रृंगार काल',डॉक्टर रस लाल ने 'कलाकाल', धर्मेंद्र ब्रह्मचारी ने 'त्रास युग', गणपति चंद्र गुप्त ने ' स्वच्छंद मुक्तक काव्य परंपरा' कहा है|
इस काल की विशेषताएं इस प्रकार हैं|
इस काल की निम्नलिखित विशेषताएं हैं :• श्रृंगारिकता का प्रधान्य|
• अलंकरण का प्रधान्य|
• भक्ति और नीतिपरक कुछेक रचनाएं|
• लक्षण ग्रंथों का निर्माण|
• वीर काव्य का निर्माण|
• मुक्तक शैली की प्रधानता|
• ब्रजभाषा की प्रधानता|
• नारी के प्रेमिका स्वरूप का विशद वर्णन|
• कवियों में बहुज्ञता एवं पांडित्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति|
• कवियों का दरबारी होना|
• राधा कृष्ण भक्त के इष्ट न रहकर सामान्य नायक नायिका के प्रतीक बन जाते हैं|
रीतिकालीन साहित्यिक प्रवृत्तियों को मुख्यतः तीन भागों में बांटा गया है-
• रीतिबद्ध अथवा आचार्य कवि :
इनके काव्यो के मुख्य विषय वस्तु है- काव्यशास्त्र का सैद्धांतिक विवेचन, लक्षण ग्रंथों की रचना ,उदाहरण शैली में काव्यागों का परिचय|
• रीतिसिद्ध कवि :
काव्य शास्त्र के अनुरूप काव्य रचना ,कविता में रस, अलंकारों आदि का निरूपण रीत सिद्ध काव्य के प्रमुख विषय वस्तु है|
• रीतिमुक्त कवि :
प्रेम की पीर की प्रधानता|
इस काल की रचनाओं की निम्नलिखित विशेषताएं हैं|
• इस काल की रचनाएं संस्कृत के काव्यशास्त्र के आधार पर हुई हैं|
• इसके कवि 'कवि शिक्षक' के पद पर आसीन,काव्य की विशेषताओं को समझने और समझाने का प्रयत्न करते हैं|
• इस धारा में लक्षणों से ज्यादा उदाहरणों को महत्ता प्राप्त हुई है|
• रीतिबद्ध कवियों में आचार्यत्व एवं कवित्व का अद्भुत समन्वय मिलता है|
• रीतिबद्ध काव्यकारो ने अपने ग्रंथों की रचना पद्य में ही की है पर कहीं-कहीं गद्य का पुट भी मिल जाता है|
इस काल की प्रमुख रचनाएं :
केशव दास कृत-" कवि प्रिया, रसिकप्रिया", मतिराम कृत- "रसराज, ललित-ललाम", देव कृत-" रस विलास, भाव विलास" और पद्माकर कृत- जगद् विनाेद|
महाकवि देव की गणना रीतिकाल के मूर्धन्य कवियों में की जाती है| काव्य सौंदर्य और आचार्यत्व दोनों ही दृष्टि से उनका स्थान महत्वपूर्ण है| इन के मुख्य ग्रंथ है - अष्टयाम,भाव विलास,भवानी विलास,रस विलास और प्रेम चंद्रिका|
पद्माकर रीतिकाल के अंतिम कवियों में से एक हैं| यह मात्र श्रृंगारिक कविता के रचयिता नहीं है, श्रृंगार के अतिरिक्त वीर और भक्ति काव्य की धाराएं भी इनकी रचनाओं में समाहित है|
इस काल में बिहारी लाल की'सतसई', सेनापति की 'कवित्त रत्नाकर', वृंद की 'बारहमासा', द्विजदेव की'श्रृंगार लतिका, श्रृंगार बत्तीसी और श्रृंगार चालीसा आदि रचनाएं आती हैं| घनानंद कृत -कवित्त-सवैये, आलम कृत- माधवानल कामकन्दकला,बोधा कृत-इश्कनामा,ठाकुर कृत -ठाकुरठसक आदि रचनाएं भी रीतिकालीन ही है|
आधुनिक काल/ गद्य विकास काल या जागरण काल:
इसका समय वि. स. 1900 से आज तक या 1843 ई. से आज तक माना गया है | मुगल साम्राज्य के पतन से ही इसका आरंभ माना गया है| बादशाहत छिड़ हो चुकी थी|फलत:; कवि गण प्रजा की शरण में जाने को बाध्य हुए|सन् 1857 के विद्रोह के बाद ही समाज सुधार और राष्ट्रीयता का स्वर मुखरित होता है| इस काल को मुख्यतः निम्नलिखित भागों में बांटा गया है:-
• भारतेंदु युग (1850 ई.-1900 ई.)
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इस युग का प्रवर्तन किया| उन्होंने ही सबसे पहले अंग्रेजों की कूटनीति से जनता को अवगत कराया और राष्ट्रीयता का स्वर मुखरित किया| इस युग के प्रमुख कवि हैं भारतेंदु हरिश्चंद्र- (प्रेम-फुलवारी, प्रेम -मालिका) ठाकुर जगमोहन सिंह, पंडित बद्रीनारायण पंडित प्रताप नारायण मिश्र ,अंबिका दत्त व्यास आदि|
• द्विवेदी युग (1900 ई.-1920 ई.)
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी इस युग के प्रवर्तक है| यह युग सामाजिक,सांस्कृतिक और राष्ट्रीय आंदोलनों का है| इस युग में कांग्रेस की स्थापना हुई| इस युग के प्रवर्तक कवि और उनकी रचनाएं इस प्रकार है:-
श्रीधर पाठक :- कश्मीर सुषमा
रामनरेश त्रिपाठी:- पथिक
अयोध्या सिंह उपाध्याय:- प्रियप्रवास
मैथिलीशरण गुप्त :- साकेत,यशोधरा
माखनलाल चतुर्वेदी:- हिमकिरीटनी
• छायावाद युग(1920 ई. 1936 ई.)
छायावाद मूलतः स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विरोध है| द्विवेदी कालीन कविता के स्थूल ,बहिर्मुखी ,आदर्शों के बेझिल रूप के प्रति कवि विद्रोह करते हैं, और अपने मन की बात को कहने के लिए प्रकृति की शरण लेते हैं|
छायावाद की निम्नलिखित विशेषताएं रही हैं-
• समाज से पलायन वादी प्रवृत्ति का होना|
• प्रकृति की शरण में जाना|
• प्रकृति से आत्मीय संबंध स्थापित करना|
• वेदना, निराशा , पीड़ा आदि का चित्रण करना|
• राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक गौरव का गुणगान करना|
• नई भाषा और शैली का प्रयोग करना|
छायावाद के मुख्य रूप से चार स्तंभ माने गए हैं :-
कवि के नाम रचनाएँ
जयशंकर प्रसाद :- लहर,झरना,प्रेम-पथिक,आंसू कामायनी
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला':- अनामिका,परिमल,अपरा गीतिका
सुमित्रानंदन पंत :- ग्रंथि,वीणा,पल्लव,गुंजन युगांत,वाणी
महादेवी वर्मा :- निहार,रश्मि,नीरजा,सांध्य- गीत,
• प्रगतिवाद (1936 ई.-1942 ई.)
ऐसी काव्य धारा ,जो दीनो,दलितो,मदूरो,किसानो,खलि-हानाे,सड़काे,झाेपड़ियाे के दुख दैन्य का और पूंजीपतियों के शोषण का चित्रण करती है प्रगतिवाद मानी गई है| इस वाद की निम्नलिखित विशेषताएं हैं|
• यह कविता छायावाद, पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के प्रति विरोध व्यक्त करती है|
• प्रगतिवाद विनाश ,विध्वंस और रक्त क्रांति का नारा लगाता है|
• इसमें पूंजीपतियों,मिलमालिकों ,साम्राज्यवादीयो आैर बुर्जुआ वर्गों के प्रति तीव्र घृणा का भाव है |
• इस वाद की रचनाओं में गरीबों,मजदूरों ,किसानों के प्रति संवेदना सहानुभूति और नवनिर्माण का स्वर मिलता है|
• इस धारा में समानता और श्रमिक वर्ग के लिए भोजन वस्त्र, आवास और जीने के अधिकारों का स्वर मिलता है|
• इस वाद के कवि जन जीवन के कटु सत्य का नग्न घृणित यथार्थ का, सामाजिक वैषम्य का वास्तविक चित्रण करने में विश्वास रखते हैं|
• इस वाद की कविताओं में भाषा का सरल ओजपूर्ण रूप तथा शैली का सरल व नवीन रूप मिलता है|
इस वाद के प्रमुख कवियों और उनकी रचनाओं का संकलन इस प्रकार है:-
• प्रगतिवाद विनाश ,विध्वंस और रक्त क्रांति का नारा लगाता है|
• इसमें पूंजीपतियों,मिलमालिकों ,साम्राज्यवादीयो आैर बुर्जुआ वर्गों के प्रति तीव्र घृणा का भाव है |
• इस वाद की रचनाओं में गरीबों,मजदूरों ,किसानों के प्रति संवेदना सहानुभूति और नवनिर्माण का स्वर मिलता है|
• इस धारा में समानता और श्रमिक वर्ग के लिए भोजन वस्त्र, आवास और जीने के अधिकारों का स्वर मिलता है|
• इस वाद के कवि जन जीवन के कटु सत्य का नग्न घृणित यथार्थ का, सामाजिक वैषम्य का वास्तविक चित्रण करने में विश्वास रखते हैं|
• इस वाद की कविताओं में भाषा का सरल ओजपूर्ण रूप तथा शैली का सरल व नवीन रूप मिलता है|
इस वाद के प्रमुख कवियों और उनकी रचनाओं का संकलन इस प्रकार है:-
कवि रचनाएँ
निराला कुकुकमुत्ता,नये पत्ते,
बेला
पंत ग्राम्य,युगांत,युगपथ,
स्वर्ण किरण
नरेंद्र शर्मा मिट्टी और फूल, रक्त चंदन, पलाश वन
शिवमंगल सिंह 'सुमन' मास्को अभी दूर है, प्रलय सृजन, हिल्लोल,
रामेश्वर शुक्ल'अंचल' किरण बेला ,करील लाल चूरन
गजानन माधव 'मुक्तिबोध' चांद का मुंह टेढ़ा है
• प्रयोगवाद युग (1942ई.........)
ऐसी काव्य धारा जो कविता के क्षेत्र में नए नए प्रयोग कर रही है एवं छायावादी और प्रगतिवादी कविता से कटकर नई दिशाओं और नए क्षेत्रों में नए नए प्रयोग कर रही है इसे ही 'प्रयोगवादी' या 'नई कविता' की संज्ञा दी गई है| इस वाद की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं|
• प्रयोगवादी कविता में सर्वथा व्यक्ति वादी स्वर है |
• इसके कवि अपनी रक्षा के लिए पुरानी सभी उपमाओं, अलंकारों, प्रतीकों, बिंबो को अस्वीकार करते हैं
• इस धारा का कवि अपनी बात को नए ढंग से प्रस्तुत करता है|
• इस वाद का कवि अपनी कुंठाओं, ग्रंथियों को कविता में यथार्थ के रूप में खोलता है|
• इस वाद का कवि मानव मन के संघर्ष, संत्रास और बिखराव को ईमानदारी से चित्रित करता है|
प्रयोगवादी कवि और उनकी रचनाएं इस प्रकारचनएँ|
कवि रचनएँ
अज्ञेय - भग्न दूत,हरी घास पर क्षण भर बावरा अहेरी, कितनी नावों में - कितनी बार,
गिरिजाकुमार माथुर- मंजीर ,नाश और निर्माण
धर्मवीर भारती - अंधा युग, ठंडा लोहा, कनुप्रिया
• साठोत्तरी या समकालीन कविता-
इस कविता की धारा का विकास सन् 60 के पास आकर हुआ|1962ई. के भारत पर चीन के आक्रमण और उसके सामने भारत का पराजित होते जाना, चीन द्वारा तिब्बत को अन्याय पूर्ण हथिया लिया जाना और नेहरू युग के पंचशील सिद्धांतों का हवाई आदर्श मात्र सिद्ध हो जाना आदि का व्यापक प्रभाव इस काल की कविता पर पड़ा| अनेक प्रकार के काव्य आंदोलन जैसे अकविता , अपरंपरावादी कविता, अस्वीकृत कविता आदि शुरू हुए |अनेक संज्ञाओं के विवाद में ना पड़ कर सातवें और आठवें दशक की कविता को ही समकालीन कविता कहा गया है|
इस काल की कविताओं में निम्नलिखित विशेषताएं है-
• सुविधा भोगी संपन्न वर्ग के प्रति एक मानसिक विद्रोह किया गया|
• नगरीय राजनीति स्वार्थ परता,आर्थिक शोषण आदि के दम घोटू वातावरण के प्रति विद्रोह का स्वर मुखरित हुआ|
• पौराणिक आख्यानाे , दार्शनिक चिंतनों , और सांस्कृतिक प्रश्नों को नए संदर्भ में रखकर उन्हें नया तेवर प्रदान किया गया|
• इसमे भाषा मे विसंगति, विडंबना,जटिलता और तनाव की अभिव्यक्ति के लिए अनूरूप शब्दों और प्रतीकों का चयन और प्रयोग भी किया गया|
इस युग की प्रमुख रचनाएं हैं-
धर्मवीर भारती कृत- अंधायुग, कनुप्रिया
कुंवर नारायण कृत - आत्मजयी
नरेश मेहता कृत - संशय की एक रात
मुक्तिबोध कृत - अँधेरे में
अज्ञेय कृत - असाध्य वीणा
कहानी
भारत में कथा साहित्य की परंपरा बहुत पुरानी रही है| गद्य विकास काल से इसे गद्य में लिखने की परंपरा शुरू हुई|कथा,गल्प,आख्यायिका,कहानी आदि नामों से यह रचना की जा रही थी;परन्तु कहीनी नाम ज्यादा लोकप्रिय हुआ|पुरानी कथा से आधुनिक कहानी इस रूप में भिन्न है की जहां कथा का उद्देश्य उपदेश देना था वहाँ कहानी का उद्देश्य मनोरंजन एवं मानव चरित्र की व्याख्या करना हो गया|
हिंदी कहानी का आरंभ भारतेंदु युग से माना गया है और उसका विशेष प्रचलन 'सरस्वती पत्रिका' एवं 'हंस' आदि में हुआ|
कहानी ऐतिहासिक,सामाजिक,धार्मिक,काल्पनिक चारित्रिक एवं घटना प्रधान हुआ करती है| इसमें अवरोह, चरमोत्कर्ष और अवसान की स्थिति होती है| इस विधा में कोई प्रधान पात्र एवं सहायक पात्र होते हैं| सामान्य रूप से प्रधान पात्र का चरित्र उजागर होता है|
उपन्यास
उपन्यास लिखने की शुरुआत 18वीं शती में ही हो गई थी किंतु भारतेंदु युग में इस विधा नें काफी विकास किया|
उपन्यास कहानी से आकार में बड़ा और विविधता पूर्ण होता है |इसमें छोटी बड़ी घटनाएं एवं अनेकानेक पात्र होते हैं| उपन्यास में प्रायः सभी पात्रों का चरित्र उजागर होता है|
नाटक
भारतीय परंपरा में नाटक को 'पंचम वेद' कहा गया है|
यह दृश्य काव्य के अंतर्गत आता है जो रंगमंच का विषय है| अभिनय कला के माध्यम से समाज एवं व्यक्ति के चरित्रों का प्रदर्शन ही 'नाटक' है| इसमें कथा तत्व की प्रधानता होती है|
वर्तमान समय में नाटक लिखने की परंपरा 'भारतेंदु -युग'से मानी गई है |
एकांकी
एकांकी नाटक से छोटी एक अंक वाली होती है| एकांकी उस नाटक को कहते हैं, जिसमें सम्पूर्ण कथानक की समाप्ति एक ही अंक में हो जाती है|
नाट्य साहित्य की परंपरा में एकांकी का अस्तित्व नहीं था; यह बाद में आया इसलिए इसे एक स्वतंत्र विधा के रूप में माना जाता है| यद्यपि एकांकी नाटक का ही छोटा रूप है तथापि यह उससे भिन्न है| इसमें एक ही मुख्य घटना या जीवन की एक संवेदना को दृश्यबध किया जाता है| एकांकी बड़ी तीव्र गति से चरम एवं अंत को बढ़ती है|
जीवनी
किसी महान एवं सामाजिक ऐतिहासिक कार्यों को करने वाले विशिष्ट व्यक्ति की विशिष्टता को बताने के लिए उनका जो जीवन वृत्त लिखा जाता है उसे ही जीवनी कहते हैं| जीवनी लिखने में उस विशिष्ट व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक के बीच में जीवन एवं कार्य का गहन अध्ययन किया जाता है| इस विधा में लेखकों को भावुकता के बजाय तथ्यों पर अधिक ध्यान केंद्रित करना पड़ता है
आत्मकथा
आत्मकथा साहित्य की अत्याधुनिक विद्याओं में शामिल की जाती है| यह किसी व्यक्ति के द्वारा आत्माभिव्यक्ति होती है| इस विधा में लेखक स्वयं नायक और मुख्य पात्र होता है| इसमें लेखक स्वयं अपनी कथा से गुजरते हुए स्वयं को खोलता है, अपने अनुभवों को बताता है तथा आत्म विश्लेषण करता है| डॉक्टर हरिवंश राय बच्चन ने अपनी आत्मकथा को चार भागों में लिखा है- क्या भूलूं क्या याद करूं, बसेरे से दूर, नीड का निर्माण फिर, द्वादश से सोपान तक| वास्तव में यह रचनाएं हिंदी साहित्य की सर्वश्रेष्ठ आत्मकथाओं में शीर्ष पर विराजमान हैं|
यात्रा वृतांत
यात्रा वृतांत उस गद्य विधा को कहते हैं, जिसमें लेखक अपनी किसी विशिष्ट यात्रा का उल्लेख करता है। इसका उद्देश्य अपने अनुभव एवं ज्ञान से पाठकों को परिचित कराना कराना है। इस विधा को पढ़कर पाठक अपनी यात्रा को उद्देश्य पूर्ण और सुखद बना सकता है। भाषा का लालित्य एवं वर्णन का माधुर्य इस इस विधा का अनिवार्य तत्व है।
राहुल सांकृत्यायन का 'हिमपात' , अज्ञेय का 'अरे यायावर याद रहेगा', रघुवंश का 'मृग मरीचिका का देश'आदि काफी काफी लोकप्रिय यात्रा वृतांत हैं।
संस्मरण
संस्मरण गद्य की वह विधा है, जिसमें लेखक किसी प्रिय व्यक्ति को याद करता हुआ उसके संग बिताए क्षणों का सुरुचिपूर्ण वर्णन करता है। इसमें लेखक स्वयं को किनारे रखकर उस विशिष्ट व्यक्ति के चरित्र को उभारने का प्रयास करता है। महादेवी वर्मा द्वारा लिखित 'राजेंद्र बाबू', निराला, पंत आदि के संस्मरण आज आज भी बड़े चाव से पढ़े जाते हैं।
रेखा चित्र
जिस तरह चित्रकार रंगो, तूलिका और कल्पना के माध्यम से चित्र बनाता है, उसी तरह साहित्यकार अपनी स्मृति की रेखाओं को शब्दों के कलात्मक रूप से अभिव्यक्त करता है। स्मृति तत्व की समानता के कारण यह विधा संस्मरण के काफी निकट है। बेनीपुरी और महादेवी वर्मा के रेखाचित्र हिंदी साहित्य में उल्लेखनीय स्थान रखते हैं।
डायरी लेखन
डायरी लेखन गद्य विधा का अत्याधुनिक रूप है। डायरी व्यक्ति के प्रत्येक दिन के कार्यों, घटित घटनाओं तथा अनुभव का संक्षिप्त लेखा-जोख है जो वह स्वयं लिखता है। इसके द्वारा लेखक नई घटनाओं, अपने विचारों एवं क्रिया प्रतिक्रिया को संचित रखता है।
डायरी लेखन में निम्नलिखित बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए:
१: विवरण संक्षिप्त हो।
२: स्थान एवं तिथि का जिक्र अवश्य हो।
३: अनुभव स्पष्टता से अभिव्यक्त हो।
४: घटना का विश्लेषण एवं निष्कर्ष जरूर हो।
५: भाषा स्पष्ट और शैली बोद्ध बोधगम्य हो।
६: डायरी लेखक के हस्ताक्षर अवश्य हों।
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