अतीत का मोह कितना सही?
हम में से बहुत लोग प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति के प्रति आग्रही हैं और कुछ लोग भारत के गौरवशाली अतीत से भावनात्मक रूप से प्रभावित हैं| वे प्राचीन समाज और संस्कृति की पुरानी व्यवस्था को फिर से स्थापित करना चाहते हैं उनके विचार से ऐसा करने से बहुत सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा|
इसमें कोई शक नहीं कि अतीत काल में लोगों ने विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति की लेकिन वर्तमान समय के आधुनिक विज्ञान और तकनीकी की बराबरी यह किसी भी स्थिति में नहीं कर सकती है| वृहद परिप्रेक्ष्य में हम इस बात की अनदेखी बिल्कुल भी नहीं कर सकते हैं की प्राचीन भारतीय समाज में सामाजिक अन्याय भी प्रमुखता से विद्यमान था| वर्ण व्यवस्था में निचले पायदान पर खड़े लोगो विशेषकर शुद्राें और
अतिशूद्रों( अस्पृश्य) को जिस प्रकार नीरीह बना दिया गया था | जिस प्रकार उनके साथ पशुओं की तरह व्यवहार किया जाता था उसकी हम आज के संदर्भ में परिकल्पना भी नहीं कर सकते हैं| इसके अतिरिक्त न्याय व्यवस्था और महिलाओं के साथ भेदभाव की प्रथा भी पुरुष प्रधान समाज के पक्ष में कार्य करती थी| इसका अर्थ यह है कि अतीत की तरफ जाने का मतलब है उस सामाजिक असमानता को पुनर्जीवित करना जिससे भारत पीड़ित रहा है|
प्राचीन काल, मध्यकाल और इसके बाद उपनिवेशकाल के अवशेष आज भी हमारे समाज में मौजूद हैं| पुराने मूल्य, मर्यादा, सामाजिक रीति रिवाज और प्रथाएं हमारी अंतर चेतना में इस तरह से जड़े जमाए हुए बैठे हैं जिनसे आसानी से छुटकारा नहीं मिल सकता| दुर्भाग्यवश जीवन की इन बुराइयों ने हमें आज भी आगे बढ़ने से रोक रखा है| जाति व्यवस्था और अलगाववाद भारत की लोकतांत्रिक गणराज्य के विकास के लिए बाधक है| जातिगत भेदभाव और पूर्वाग्रह से ग्रसित होने के कारण शिक्षित लोग भी मानव श्रम का सम्मान नहीं कर पाते जिसके कारणवश सामान्य मसलो पर भी लोग एकमत नहीं हो पाते हैं|
यह सच है कि महिलाओं को मतदान का अधिकार प्राप्त है लेकिन परंपरागत सामाजिक शोषण के कारण उन्हें समाज में अपनी उचित भूमिका निभाने से वंचित रखा जाता है| महिलाओं को आज भी समाज में दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है| अशिक्षा, भेदभाव, घरेलू हिंसा, याैन हिंसा, आत्मनिर्भरता की कमी की वजह से महिलाएं आज भी समाज में एक सम्मानजनक स्थान प्राप्त करने के लिए संघर्ष करती हैं|
संकीर्ण धार्मिक अलगाववाद, समाज में निचले पायदान पर खड़े लोग और महिलाओं के प्रति दोयम दर्जे का व्यवहार प्राचीन काल के कुछ ऐसे औगुण हैं, जिन से छुटकारा पाने के लिए हम वर्तमान युग में भी संघर्षरत हैं| अतीत की इन बुराइयों का जब तक उन्मूलन नहीं किया जाता तब तक हम एक बेहतर समाज और देश की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं|
इसलिए यह सोचना कि पुराना हमेशा सही होता है और नया हमेशा गलत होता है ठीक नहीं है| सभ्यता का विकास कई शताब्दियों में धीरे धीरे हुआ है,यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है| जिसमें अच्छी बातों को अपनाया जाता है और कुरीतियों में सुधार किया जाता है| गौरवशाली अतीत पर गर्व करना ठीक है लेकिन दुराग्रही होना ठीक नहीं है|
इसमें कोई शक नहीं कि अतीत काल में लोगों ने विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति की लेकिन वर्तमान समय के आधुनिक विज्ञान और तकनीकी की बराबरी यह किसी भी स्थिति में नहीं कर सकती है| वृहद परिप्रेक्ष्य में हम इस बात की अनदेखी बिल्कुल भी नहीं कर सकते हैं की प्राचीन भारतीय समाज में सामाजिक अन्याय भी प्रमुखता से विद्यमान था| वर्ण व्यवस्था में निचले पायदान पर खड़े लोगो विशेषकर शुद्राें और
अतिशूद्रों( अस्पृश्य) को जिस प्रकार नीरीह बना दिया गया था | जिस प्रकार उनके साथ पशुओं की तरह व्यवहार किया जाता था उसकी हम आज के संदर्भ में परिकल्पना भी नहीं कर सकते हैं| इसके अतिरिक्त न्याय व्यवस्था और महिलाओं के साथ भेदभाव की प्रथा भी पुरुष प्रधान समाज के पक्ष में कार्य करती थी| इसका अर्थ यह है कि अतीत की तरफ जाने का मतलब है उस सामाजिक असमानता को पुनर्जीवित करना जिससे भारत पीड़ित रहा है|
प्राचीन काल, मध्यकाल और इसके बाद उपनिवेशकाल के अवशेष आज भी हमारे समाज में मौजूद हैं| पुराने मूल्य, मर्यादा, सामाजिक रीति रिवाज और प्रथाएं हमारी अंतर चेतना में इस तरह से जड़े जमाए हुए बैठे हैं जिनसे आसानी से छुटकारा नहीं मिल सकता| दुर्भाग्यवश जीवन की इन बुराइयों ने हमें आज भी आगे बढ़ने से रोक रखा है| जाति व्यवस्था और अलगाववाद भारत की लोकतांत्रिक गणराज्य के विकास के लिए बाधक है| जातिगत भेदभाव और पूर्वाग्रह से ग्रसित होने के कारण शिक्षित लोग भी मानव श्रम का सम्मान नहीं कर पाते जिसके कारणवश सामान्य मसलो पर भी लोग एकमत नहीं हो पाते हैं|
यह सच है कि महिलाओं को मतदान का अधिकार प्राप्त है लेकिन परंपरागत सामाजिक शोषण के कारण उन्हें समाज में अपनी उचित भूमिका निभाने से वंचित रखा जाता है| महिलाओं को आज भी समाज में दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है| अशिक्षा, भेदभाव, घरेलू हिंसा, याैन हिंसा, आत्मनिर्भरता की कमी की वजह से महिलाएं आज भी समाज में एक सम्मानजनक स्थान प्राप्त करने के लिए संघर्ष करती हैं|
संकीर्ण धार्मिक अलगाववाद, समाज में निचले पायदान पर खड़े लोग और महिलाओं के प्रति दोयम दर्जे का व्यवहार प्राचीन काल के कुछ ऐसे औगुण हैं, जिन से छुटकारा पाने के लिए हम वर्तमान युग में भी संघर्षरत हैं| अतीत की इन बुराइयों का जब तक उन्मूलन नहीं किया जाता तब तक हम एक बेहतर समाज और देश की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं|
इसलिए यह सोचना कि पुराना हमेशा सही होता है और नया हमेशा गलत होता है ठीक नहीं है| सभ्यता का विकास कई शताब्दियों में धीरे धीरे हुआ है,यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है| जिसमें अच्छी बातों को अपनाया जाता है और कुरीतियों में सुधार किया जाता है| गौरवशाली अतीत पर गर्व करना ठीक है लेकिन दुराग्रही होना ठीक नहीं है|
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